
सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव का सातवां और आखिरी चरण संपन्न होते ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर एक्जिट पोल के रुझान आने शुरु हो गये, जिनमें एक बार फिर नरेन्द्र मोदी सरकार बनने एवं एनडीए के बहुमत का एक नया इतिहास बनने के संकेत मिले हैं। एक्जिट पोल मतदाता के फैसले का प्रस्तुतीकरण नहीं है बल्कि यह मात्र रुझान को जानने की प्रक्रिया है, मतदाता का असली निर्णय एवं पूरे देश का भविष्य तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और वीवीपैट की पर्चियों में बंद हैं, जो 23 मई को मतों की गिनती के बाद सार्वजनिक हो जाएगा। लेकिन यह लगभग तय है और एक्जिट पोल से पहले ही ऐसे संकेत मिलने लगे थे कि इस 2019 के चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिल रहा है और एक स्थिर सरकार बनने जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक शुभ एवं श्रेयस्करता की बात है। क्योंकि इस बार मोदी सरकार पिछले पांच साल की सरकार से बेहतर होगी, ऐसी आशा हम सभी कर सकते हैं। जरूरत है वह अपनी कतिपय भूलों से सबक लेते हुए नया भारत, सुदृढ़ भारत निर्मित करने की दिशा में ठोस कदम उठाये। सत्तर साल के सफर में ही बुढ़ापे को ओढ़ चुका लोकतंत्र एक बार फिर भरपूर यौवन के साथ सामने आयेगा, इसमें संदेह नहीं है। आने वाले चुनाव परिणाम एक नये अध्याय की शुरुआत की आहट का संकेत है।
इन चुनावों में विपक्षी दलों ने एकता के लिये अनेक नाटक रचे, भाजपा एवं मोदी को हराने की तमाम जायज-नाजायज कोशिशें भी हुई, लेकिन उनके कोई सार्थक परिणाम चुनाव के दौरान सामने नहीं आये। अब चुनाव नतीजे आने के पहले एक बार फिर विपक्षी दलों के विभिन्न नेताओं के बीच मेल-मिलाप तेज होना आश्चर्यकारी है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू अखिलेश यादव और मायावती से मिल रहे हैं, वे सोनिया गांधी और राहुल गांधी से भी मिले हैं। इसके बाद वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार से भी मिले। उनके इस सघन संपर्क अभियान के बीच अन्य दलों के नेता भी भावी सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते हुए प्रयास कर रहे हैं।
गठबंधन की राजनीति के नाम पर केवल इतना ही नहीं हुआ या हो रहा है। राष्ट्र की सुदृढ़ता की बजाय एक व्यक्ति को हराने की विपक्षी नेताओं की संकीर्ण एवं स्वार्थी मानसिकता और कमजोर नीति ने जनता की तकलीफें बढ़ाई हैं। ऐसे सोच वाले ममता बनर्जी, अखिलेश, मायावती, चन्द्रबाबू नायडू जैसे व्यक्तियों को अपना राज्य नहीं दिखता। उन्हें राष्ट्र कैसे दिखेगा। भारत में जितने भी राजनैतिक दल हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हुए देखा गया हैं पर सत्ता प्राप्ति की होड़ में सभी को एक ही संस्कृति को मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करते हुए देखा गया हैं। इसमें ममता बनर्जी ने तो सारी हदें पार कर दी है। शायद उनकी हिंसक मानसिकता एवं अराजक सोच परिणाम से पूर्व ही हार की संभावनाओं की निष्पत्ति है। अखिलेश एवं मायावती ने भी जातीय राजनीति के नाम पर जनता को बांटने की कुचेष्टा की। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक ऐसे काम हुए जिनसे जनता के बीच न केवल भ्रम फैला, बल्कि उसके बीच यह संदेश भी गया कि विपक्षी दल अपनी एकजुटता को लेकर गंभीर नहीं हैं, जब वे संगठित होकर एक छत्री के नीचे चुनाव नहीं लड़ सके तो गठबंधन की सरकार कैसे चला सकते हैं? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विपक्षी एकता की जरूरत पर तमाम बल दिए जाने के बावजूद भाजपा विरोधी दल अपनी एकजुटता का सही तरह से प्रदर्शन नहीं कर सके। वे महागठबंधन बनाने को लेकर बड़ी-बड़ी बातें और साथ ही बैठकें तो करते रहे, लेकिन कोई ठोस विकल्प देने की रूपरेखा तैयार नहीं कर सके। इन चुनावों में विपक्षी दलों के बीच संवाद एवं आपसी संगठन के सारे पुल स्वार्थों एवं निजी हितों की भेंट चढ़ते रहे हैं। परिणामों पर इन स्थितियों का स्पष्ट असर देखने को मिलेगा। फिर भी नये बनने वाले लोकसभा सत्र में विपक्षी दल अपनी रचनात्मक भूमिका की मानसिकता को लेकर आगे बढ़े, यह अपेक्षित है। क्योंकि सशक्त लोकतंत्र के लिये सुदृढ़ विपक्ष होना ही चाहिए।
इन आम चुनाव की घोषणा 10 मार्च को हुई थी, तब से अब तक देश को जिन लहरों, हवाओं और तनावों से गुजरना पड़ा है, वह अपने आप में अभूतपूर्व भी है और त्रासद भी है। यह देश का सबसे ज्यादा ध्रूवीकृत, तनावग्रस्त और संभवतः सर्वाधिक खर्चीला चुनाव था। इस दौरान देश का राजनीतिक चरित्र कई बार जिस निचले स्तर पर पहुंचता दिखा, वह अपने आप में चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि चुनाव के दौरान आरोप-प्रत्यारोप और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशें पहले नहीं होती थीं, लेकिन इस बार के चुनावी हंगामे ने न गौरव प्रतीकों को, न इतिहास को बख्शा और न पूर्वजों को। सत्ता पक्ष हो या विरोधी पक्ष- कीचड़ उछालने के प्रयास में उन स्तंभों को भी घेरे में लेने की कोशिश की गई, जिनका जनमानस आज भी सम्मान करता है और जिन पर हमारा वर्तमान टिका है। फिर पश्चिम बंगाल में जिस तरह की हिंसा हुई, वह बताती है कि लोकतांत्रिक लड़ाई की हमारी परंपराओं में सब कुछ अच्छा नहीं है। इन चुनावों में कितनों के होंठ मुस्कुराये, कितनों की आंखें रोईं। कितनों ने तालियां पीटीं और कितनों ने छातियां पीटीं। लेकिन वक्त मनुष्य का खामोश पहरुआ है पर वह न स्वयं रुकता है और न किसी को रोकता है। वह खबरदार करता है और दिखाई नहीं देता। कोई उससे बलवान नहीं, कोई उससे धनवान नहीं। अब जो परिणाम आने वाले हैं उनमें कितने ही आसमाँ को जमीं खा जायेगी और कितने ही कद्दावर बौने हो जायेेंगे। इन चुनावों में कितनों ने लूटा और कितने ही लुट गये। इसलिये इन चुनावों के परिणाम भी चैंकाने वाले होंगे, लेकिन जो भी तस्वीर सामने आयेगी, उससे निश्चित ही भारत मजबूत बनेगा।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, दुनिया में कहीं भी इस तरह करोड़ों लोग घरों से निकलकर, लाइनों में लगकर अपनी किस्मत का फैसला करने नहीं जाते, जैसे वे भारत में जाते हैं। अगर यह हमारे लोकतंत्र की ताकत है, तो पिछले दो महीनों से ज्यादा समय में जो हुआ, उसे क्यों न हमारी व्यवस्था का ऐसा दोष माना जाए, जिसे अविलंब सुधारना जरूरी है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दोषमुक्त करने की जरूरत है। इस दृष्टि से नयी गठित होने वाली सरकार को पहल करनी चाहिए। विशेषतः चुनाव प्रक्रिया के लगातार खर्चीले होते जाने की स्थितियों पर नियंत्रण करना होगा। इस बार भी विदेशी अखबार भारत के चुनावी खर्चे को 7 अरब डॉलर यानी तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपया बता रहे हैं। प्रचार के दौरान रैली और रोड शो से लेकर हेलिकॉप्टरों, छोटे विमानों की बुकिंग का मामला हो या पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापनों या फिर टीवी चैनलों पर मिले समय का, सत्तारूढ़ भाजपा हो या अन्य दल हर तरह के खर्चे में बढ़ोतरी चिन्ता का विषय है।
अनेक काले पृष्ठों ने लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर किया है, अब चुनाव बाद की सबसे जरूरी चीज है कि आम सहमतियों की ओर राष्ट्र को लौटाना होगा। भारतीय लोकतंत्र को धन-बल के प्रभाव से मुक्त कराना होगा। लेकिन इस बीच बहुत सारी नई बुराइयां हमने लोकतंत्र के साथ जोड़ ली हैं। भारतीय लोकतंत्र को ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त कराने की जरूरत लगातार बढ़ती जा रही है, जो नयी गठित होने वाली सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी। इस बार विपक्ष जरा मजबूत होगा, लेकिन उसकी ताकत का अहसास होना लोकतंत्र की मजबूती के लिये अनिवार्य है।
सूर्य उदय होता है और ढल जाता है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष आते-जाते रहते हैं। सत्ताएं बदल जाता है, राजनैतिक दलों की ताकत भी बदल जाती है। लोकतंत्ररूपी सूर्य को भी इन चुनावों में उदय होते एवं ढलते हुए देखा गया, इस चुनावी महाकुंभ ने कितनों की कालिख धो दी और कितनों के लगा दी। कितने ही फूल खुशबू बिखेर कर समय की चैखट पर चढ़ गये। कितनी ही लहरें सागर तट से टकराकर समय की गोद में विलीन हो गईं। कितने ही गीत होठों से निकले और समय के क्षितिज में गुम हो गए। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लगे, ऐसी कितनी ही विडम्बनाएं एवं विसंगतियां लोकतंत्र की गरिमा को धुंधलाती रही, जिन आम सहमतियों पर लोकतंत्र टिका है, वे आम सहमतियां भी बार-बार टूटती दिखीं। विदेश नीति और सेना वगैरह को इस देश ने हमेशा चुनावी लड़ाई से दूर रखा है, लेकिन इस बार इसे भी चुनाव मैदान में खींचा जाता रहा। इन सब धुंधलकों के बीच भी लोकतंत्र ने अपने अस्तित्व एवं अस्मिता को कायम रखा और अब एक नयी ऊर्जा के साथ सामने आ रहा है।
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