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सुप्रीम फैसला : विधि शिक्षा और न्याय तंत्र की सुखद राह

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सुप्रीम कोर्ट का हालिया ऐतिहासिक निर्णय भारतीय विधि शिक्षा और न्यायिक व्यवस्था की दशा और दिशा दोनों को नई राह दिखाने वाला है। मंगलवार को दिए गए इस निर्णय में शीर्ष अदालत ने यह स्पष्ट किया कि अब सिविल न्यायाधीश (जूनियर डिवीजन) की परीक्षा में बैठने के लिए कम से कम तीन वर्षों की विधिक प्रैक्टिस अनिवार्य होगी। यह निर्णय न केवल एक प्रशासनिक कसौटी को स्थापित करता है, बल्कि विधिक पेशे के प्रशिक्षण, तैयारी और प्रक्रिया में एक मौलिक सुधार की ओर भी इशारा करता है।

यह बदलाव उस प्रवृत्ति पर करारा प्रहार है जिसमें छात्र विधि की डिग्री प्राप्त करते ही कोचिंग संस्थानों की शरण में चले जाते हैं, जहां न्यायिक सेवा की परीक्षाओं के लिए उन्हें एक तात्कालिक पाठ्यक्रम और रटंत शैली में ढाला जाता है। ऐसे छात्र व्यावहारिक ज्ञान से वंचित रहते हैं और एक ऐसे न्यायाधीश के रूप में उभरते हैं जिनके पास न तो मुवक्किलों से संवाद का अनुभव होता है और न ही अदालत की कार्यप्रणाली का व्यावहारिक बोध।
इस निर्णय से विधि महाविद्यालयों को भी एक नई भूमिका में प्रवेश करना होगा। अब उन्हें केवल पाठ्यक्रम की पूर्ति करने वाले संस्थान नहीं, बल्कि समग्र विधिक प्रशिक्षण के केंद्र के रूप में स्वयं को स्थापित करना होगा। मूट कोर्ट प्रतियोगिताएं, इंटर्नशिप कार्यक्रम, केस स्टडी आधारित शिक्षण, क्लिनिकल लीगल एजुकेशन, कोर्ट विज़िट, लोक अदालतों में भागीदारी और सिम्युलेशन आधारित शिक्षण पद्धतियों को मुख्यधारा में लाना होगा। इससे छात्रों को कानून की बारीकियों को समझने का अवसर मिलेगा और वे विधि को एक जीवंत, गतिशील और सामाजिक प्रक्रिया के रूप में आत्मसात कर पाएंगे। विधि शिक्षा पर इसका दूरगामी और सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। कोचिंग संस्थानों की आवश्यकता स्वतः सीमित होगी, क्योंकि छात्रों को अब परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि एक कुशल वकील और परिपक्व न्यायाधीश बनने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। यह बदलाव लॉ कॉलेजों के शिक्षकों के लिए भी प्रेरणा बनेगा कि वे महज़ किताबी ज्ञान के स्थान पर अनुभव आधारित और बहुस्तरीय शिक्षण विधियों का सहारा लें। इससे शिक्षण का स्तर बढ़ेगा, शोध और संवाद की संस्कृति विकसित होगी और विधि शिक्षा की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित होगी।

जहां एक ओर यह निर्णय विधि छात्रों को अधिक व्यावहारिक और पेशेवर बनाएगा, वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका को भी इसका दीर्घकालिक लाभ मिलेगा। अब जो न्यायाधीश न्यायिक सेवा में आएंगे, वे अदालत के वातावरण, प्रक्रिया और समस्याओं से पूर्व परिचित होंगे। उन्होंने मुवक्किलों से वार्तालाप किया होगा, बहस में भाग लिया होगा, और विधिक तर्कों की बुनियादी परख प्राप्त की होगी। वे न्याय को केवल शास्त्रीय शब्दों में नहीं, बल्कि सामाजिक संदर्भ में समझ पाएंगे। ऐसे न्यायाधीशों से न केवल न्यायिक प्रक्रिया की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि फैसलों में मानवीय दृष्टिकोण और व्यवहारिक विवेक भी झलकेगा। जनता का न्यायपालिका पर विश्वास तब और सुदृढ़ होता है जब उसे यह विश्वास हो कि न्याय करने वाला व्यक्ति केवल कानून की धाराओं को नहीं, बल्कि जीवन की जटिलताओं को भी समझता है। यह निर्णय उसी दिशा में एक ठोस कदम है। अब न्यायपालिका को ऐसे सदस्य मिलेंगे जो विचारशील, संवेदनशील और सामाजिक दृष्टि से सजग होंगे।

इस निर्णय से विधि शिक्षा के व्यवसायीकरण की प्रवृत्ति को भी एक गंभीर चुनौती मिलेगी। अब छात्र जानेंगे कि कोचिंग के सहारे न्यायपालिका तक पहुंच संभव नहीं, बल्कि उनके अपने अध्ययन, अनुभव और व्यावहारिक कौशल ही उन्हें इस पद तक ले जा सकते हैं। यह परिस्थिति छात्रों को कॉलेज के प्रति अधिक गंभीर बनाएगी, और लॉ कॉलेजों को भी उच्चस्तरीय अधिगम वातावरण देने के लिए प्रेरित करेगी। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक साधारण प्रक्रिया-संशोधन नहीं, बल्कि विधि शिक्षा और न्याय तंत्र को अधिक उत्तरदायी, अधिक व्यावहारिक और अधिक न्यायोन्मुख बनाने की दिशा में एक दूरदर्शी और क्रांतिकारी कदम है। यह निर्णय आने वाली न्यायिक पीढ़ी के भीतर गहनता, दृष्टिकोण और न्यायबोध का निर्माण करेगा। यह एक ऐसा अवसर है जिसे विधि शिक्षा संस्थानों, छात्रों और न्यायपालिका, सभी को गंभीरता से आत्मसात करना चाहिए।

लेखक डॉ. अनिल दीक्षित शिक्षाविद हैं।