
‘क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व मिल बना शरीरा’ अर्थात मानव तन, बल्कि बल्कि संपूर्ण जीव जगत की भौतिक देह, का निर्माण मिट्टी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पंच तत्वों के संयोग से ही होता है। क्योंकि जीव प्रकृति का एक घटक है जो प्रकृति की गोद में ही जन्मता और मरता है। हम कह सकते हैं कि ये पंचमहाभूत मिलकर ही प्रकृति का निर्माण करते हैं। प्रकृति ही सभी जीवों एवं वनस्पतियों की आश्रयस्थली एवं जीवन आधार है। मानव, पशु-पक्षी, वनस्पतियां, सागर-सरिताएं, गिरि-कानन आदि मिलकर जैव पारिस्थितिकी तंत्र बनाते हैं। तो प्रकृति के संतुलन के लिए जरूरी है कि प्राकृतिक जैव पारिस्थितिकी तंत्र सुचारू रूप से संचालित हाता रहेे। प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन में प्रत्येक जीव-वनस्पति की जैव मंडल तंत्र में उसकी एक खास भूमिका निश्चित है जो परस्पर अवलंबित है, महत्वपूर्ण है, साथ ही सह-अस्तित्व पर केंद्रित भी। कोई भी अन्तः वाह्य अनावश्यक दबाव एवं हस्तक्षेप उसकी सम्यक् भूमिका निर्वहन में न केवल बाधक होता है बल्कि तंत्र को प्रभावित कर असंतुलन का शिकार भी बनाता है। हम देखते हैं कि जीवन निर्वाह के लिए प्रकृति में एक खाद्य श्रंखला व्यवस्थित रूप से विद्यमान है। जो संतुलन साधते हुए प्रकृति के सौंदर्य और अस्तित्व को भी बनाए रखती है। मानव प्रकृति की इस श्रंखला तंत्र में सर्वोपरि है। वह विवेकवान सचेतन प्राणी है, पर निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए वह विवेकहीन हो अपनी बुद्धि बल से प्रकृति के पारिस्थितिकी तंत्र को बाधा पहुंचाकर सम्पूर्ण जीव जगत के जीवन पर संकट के रूप में उभर आया है। स्वार्थपरता में अपनी सुख-सुविधा हेतु न केवल भौतिक संसाधनों अपितु जैव विविधता का, शोषण कर रहा है। जैव विविधता सभी जीवों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। वास्तव में, मानव जीवन प्रकृति के सह-अस्तित्व पर ही निर्भर है।
प्रकृति जीवनदायिनी मां है। वह सभी प्राणियों एवं वनस्पतियों का पोषण करती है। थका हारा मानव मन प्रकृति माता के आंचल की सुखद छांव में शान्ति पाता है। कलरव करती कल्लोलिनी का शीतल नीर पान कर वह तृप्ति का अनुभव करता है। कोयल की कूक मन की वितृष्णा और शोक को हर लेती है। पपीहे की टेर उसके अंतर्मन के भाव का जागरण करती है। ऊंचे हिमाच्छादित गिरि शिखर उसमें आशा का संचार करते हैं। गगन में उड़ते श्वेत बलाक गण उसके अंदर जीने का उत्साह जगाते हैं। सिंधु की उत्ताल तरंगों से अठखेलियां करते समुद्री जीव उसमें जीवन के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। कानन केसरी की गर्जना उसमें वीरत्व भाव का उन्मेष करती है। प्रकृति में अवस्थित सूक्ष्म जीवाणु, फंगस, काई, चींटी, भौंरों, तितलियों से लेकर गौरैया, गिद्ध, चील, बाज, मोर, मीन, कच्छप, मकर, डाल्फिन और हाथी, सिंह, शार्क, ह्वेल तक सभी पशु-पक्षी, मानव एवं विभिन्न प्रकार के पादप और वनस्पति जीवन के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं। जब इनमें से किसी एक के साथ छेड़छाड़ की जाती है तो उसका प्रभाव पूरे जैवमंडल पर पड़ता है।
वन्यजीवों के जीवन के संरक्षण के लिए वन्य जीव प्रेमी आंदोलन एवं अभियान के माध्यम से जन जागरूकता का काम करते हुए सरकारों को चेताते रहे हैं। तो संकटग्रस्त जीवों के महत्व के प्रति वैश्विक जागरूकता बढ़ाने और उनको विलुप्त होने से बचाने एवं संरक्षित करने की पहल के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने 68वें अधिवेशन में थाईलैंड के प्रस्ताव पर 20 दिसम्बर 2013 को आम सहमति से प्रति वर्ष 3 मार्च को ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ मनाने का निर्णय लिया जिसे सभी सदस्य देश मना कर प्रकृति के सह अस्तित्व के संदेश को आत्मसात करने और दैनंदिन व्यवहार में उतारने का संकल्प लेते हैं। यह आयोजन प्रत्येक वर्ष एक थीम पर केंद्रित होता है। ‘पृथ्वी पर जीवन रखना है’ वर्तमान वर्ष का थीम विषय है जो वन्य जीवों के महत्व को दर्शाता है। एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के तीन अरब लोगों का जीवन और जीविका समुद्र एवं तटीय जैव विविधता एवं संसाधनों पर आश्रित है। समुद्री एवं तटीय संसाधनों पर केंद्रित उद्योग धंधों का उत्पादकता मूल्य 3 खरब डालर से कहीं अधिक है जो विश्व की जीडीपी का 5 प्रतिशत है। लेकिन आज यह समुद्र और समुद्री जीव जगत जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के कारण दुर्दशा का शिकार है। समुद्री जीवों की बहुत सारी प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। इंटरनेशनल यूनियन कंजर्वेशन ऑफ नेचर के एक अध्ययन के अनुसार जीवो की 2500 से अधिक प्रजातियां संकट में हैं। साथ ही 1975 से अधिक वनस्पतियां अस्तित्व से संघर्ष कर रही हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार पिछली एक सदी में 60 से 80 लाख जीव एवं वनस्पतियां लुप्त हो चुकी हैं। उल्लेखनीय है कि भारत ने भी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए शुरुआती कदम बहुत पहले ही उठा लिए थे। 1872 में वाइल्ड एलीफैंट प्रिजर्वेशन एक्ट एवं 1927 में भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया जिसके अनुसार वन्यजीवों के शिकार एवं वनों की अवैध कटाई को दंडनीय अपराध घोषित किया गया था। इसके साथ ही 1972 में पारित भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम वन्यजीवों यथा हाथी, बाघ, भालू, हिरण, सेही, लंगूर, गैंड़ा, डाल्फिन, बारहसिंहा, ऊदबिलाव, गिरगिट, बड़ी गिलहरी, तेंदुआ .. आदि के अवैध शिकार, मांस, खाल, हड्डी, बाल, दांत आदि के व्यापार पर रोक लगाकर संरक्षण प्रदान करता है। भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वन्यजीवों के संरक्षण के लिए काम कर रही संस्थाओं से न केवल संबद्ध है बल्कि समय-समय पर मार्गदर्शन भी करता रहा है।
विकास के नाम पर प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़ और शोषण के दुष्परिणाम दिखाई पड़ने लगे हैं। बढ़ते शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण के कारण जंगलों की कटान की जा रही है। अवैध खनन के द्वारा प्रकृति की जीवन रेखा नदियां मारी जा रही हैं। मानव जीवन को सहज बनाने के लिए ईजाद किया गया प्लास्टिक आज जैव विविधता के लिए सबसे बड़ा संकट बनकर उपस्थित है। लाखों टन प्लास्टिक समुद्र में पहुंच चुका है जो समुद्री जीवन के लिए खतरा है। स्मरणीय है कि विश्व के कार्बन उत्सर्जन का 80 प्रतिशत समुद्र एवं जंगल सोखते हैं। अभी धरती के फेफड़े कहे जाने वाले अमेजन एवं ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग से जैव विविधता को भारी नुकसान हुआ है। बढ़ते वैश्विक ताप के कारण पहाड़ों की बर्फ पिघलने से समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है जो समुद्र तटीय देशों के अस्तित्व पर एक संकट के रूप में खड़ा है। मनुष्य की अधिकाधिक भौतिक संसाधनों को जुटाने की लालसा ने जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों का अधाधुंध शोषण किया है। पंख, दांत, खाल, नाखून, सींग एवं हडिड्यों के लिए हाथी, बाघ, हिरन, गैंडा, मोर आदि का खूब अवैध शिकार किया गया। भारत का राष्ट्रीय पशु लुप्त हो चुका है। बाघ गिनती के बचे हैं। प्रकृति के सफाई कर्मी शवभक्षी गिद्ध 95 प्रतिशत लुप्त हो गए। मानव के शुरुआती जीवन से साहचर्य में रही गौरैया-मैना अब बहुत कम ही दिखाई पड़ती हैं। खेतों से अधिकाधिक फसलोत्पादन लेने के लिए अधाधुंध रसायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग के कारण न केवल मृदा जीवनहीन हुई है बल्कि किसान के मित्र केंचुआ, मेंढ़क भी गहराई में समाधिस्थ हो गये हैं। दोषी कौन है, विचार करें। वन्यजीव संकट में हैं जिन्हें बचाने की महती आवश्यकता है ताकि नीले ग्रह पर मानव की पदचाप सुनाई पड़ती रहे और प्रकृति के विशाल आंगन में वन्य जीव निर्भय विचरण करते रहें।
-लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास, भाषा एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं।
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