
नई दिल्ली। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कोरोना वायरस महामारी के बीच आगाह किया है कि अमीर मुल्क संभावित वैक्सीन की जमाखोरी कर सकते हैं और गरीब देशों तक शायद इसकी पर्याप्त सप्लाई भी न होने पाए। WHO चीफ टेड्रॉस अडानोम गेब्रिएसिस ने एक दिन पहले ही ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ को रोके जाने की जरूरत पर जोर दिया। आइए समझते हैं कि आखिर क्या है ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ और क्यों इसे रोके जाने की है जरूरत।
जानिए क्या है ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’?
सिर्फ अपने नागरिकों या अपने यहां रहने वाले लोगों के लिए जब कोई देश वैक्सीन डोज सुरक्षित करने की कोशिश करता है तो इसे ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ नाम दिया जाता है। ऐसी स्थिति तब होती है जब कोई देश वैक्सीन को अन्य देशों में उपलब्ध होने से पहले ही उन्हें अपने घरेलू बाजार और अपने नागरिकों के लिए एक तरह से रिजर्व करने की कोशिश करता है। इसके लिए संबंधित देश की सरकार वैक्सीन मैन्यूफैक्चरर के साथ प्री-परचेज अग्रीमेंट कर लेती है।
जानिए अभी क्या हो रहा है?
दुनिया भर में कोरोना वायरस का कहर झेल रही है लेकिन अभी तक इसकी वैक्सीन नहीं बन पाई है। तमाम देशों में सरकारी और निजी स्तर पर कोरोना वैक्सीन बनाने की कोशिशें चल रही हैं। कुछ का शुरुआती स्तर पर ह्यूमन ट्रायल चल रहा है तो किसी का फाइनल स्टेज में है। लेकिन अभी से अमेरिका, ब्रिटेन, जापान फ्रांस, जर्मनी जैसे अमीर देश वैक्सीन मैन्यूफैक्चरर्स के साथ प्री-परचेज अग्रीमेंट कर चुके हैं। जापान, अमेरिका, ब्रिटेन और ईयू ने सबसे पहले अपने यहां वैक्सीन को सुनिश्चित करने के लिए अरबों रुपये खर्च कर डाले हैं। इन देशों ने कोरोना वैक्सीन बनाने के करीब पहुंचीं फाइजर इंक, जॉनसन ऐंड जॉनसन और एस्ट्रा जेनेका जैसी कंपनियों के साथ अरबों रुपये का करार कर लिया है। हालांकि, इन कंपनियों की वैक्सीन कितनी कारगर होगी, अभी यह भी साफ नहीं हो पाया है।
‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ है वैक्सीन तक सबकी पहुंच की राह में बाधा
ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इस तरह के प्री-परचेज अग्रीमेंट्स से कोरोना की वैक्सीन सबकी पहुंच से बाहर हो सकती है। मोटे तौर पर दुनिया की आबादी 800 करोड़ के करीब है, जिसमें सभी तक वैक्सीन पहुंचाना तो अपने आप में टेढ़ी खीर है। ऊपर से इस तरह के अडवांस अग्रीमेंट कोरोना की वैक्सीन को गरीब देशों की पहुंच से दूर कर देंगे। इनकी कीमत इतनी ज्यादा हो जाएगी कि सभी इन्हें अफोर्ड भी नहीं कर पाएंगे।
‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ नया नहीं है
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है कि दुनिया के तमाम देश ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ की राह पर चल रहे हैं। 2009 में H1N1 फ्लू के प्रकोप के वक्त भी इसी तरह से वैक्सीन की जमाखोरी हुई थी। तब ऑस्ट्रेलिया पहला ऐसा देश था जिसने एच1एन2 फ्लू की वैक्सीन बनाने में कामयाबी हासिल की थी। लेकिन उसने उस वैक्सीन के निर्यात को प्रतिबंधित कर दिया। दूसरी तरफ कुछ अमीर देशों ने कई फार्मा कंपनियों के साथ वैक्सीन के लिए प्री-परचेज अग्रीमेंट कर लिया था। सिर्फ अमेरिका ने 6 लाख वैक्सीन डोज के लिए अग्रीमेंट किया था।

WHO की चेतावनी
WHO यानि विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रॉस गेब्रिएसिस ने मंगलवार को चेतावनी देते हुए कहा कि वैक्सीन राष्ट्रवाद और जमाखोरी कोरोना वायरस के खतरे को और बढ़ा देंगी। उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस की वैक्सीन को कभी भी राष्ट्रवाद से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। हमें वैक्सीन की पहुंच सभी लोगों तक बनानी होगी, जिससे इस महामारी को जल्द से जल्द रोका जा सके।