1957 में रूस ( सोवियत संघ ) ने स्पूतनिक नाम का पहला सैटलाइट अंतरिक्ष भेजा था। तब से अंतरिक्ष मानो जोर-आजमाइश का मैदान बन गया है। इस समय लगभग 1,957 सैटलाइट्स पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। हालांकि इससे संसार को आर्थिक और वैज्ञानिक लाभ भी होता है। नेविगेशन, संचार, मौसम का पूर्वानुमान, आपदा राहत जैसी सेवाएं प्राप्त होती हैं। यूरोपीय आयोग के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिमी देशों की छह से सात प्रतिशत जीडीपी सैटलाइट नेविगेशन पर निर्भर है। मगर अंतरिक्ष अभियानों के पीछे मूल भाव अपनी ताकत का सिक्का बैठाना ही रहा है। चाहे यह नई उपलब्धि हासिल करने की बात हो या किसी नए अभियान के जरिए कुछ खास देशों का एकाधिकार तोड़ने की। भारत भी पिछले दिनों ऐंटी-सैटलाइट मिसाइल का सफल परीक्षण कर ऐसा करने वाला चौथा देश बना तो ऐसी ही बातें कही गईं। नासा ने इसके बाद अंतरिक्ष कचरे का सवाल उठा दिया।
इसमें दो राय नहीं कि जब कोई मूल सैटलाइट टूटता है तो अंतरिक्ष में उसका कचरा फैल जाता है। अंतरिक्ष का कचरा, दरअसल स्पेसक्राफ्ट्स के नॉन फंक्शनल टुकड़े होते हैं। इन टुकड़ों का आकार कुछ भी हो सकता है। ये छोटे हो सकते हैं, बड़े भी। ये चार से पांच मील प्रति सेकेंड की रफ्तार पकड़ सकते हैं। पांच मील प्रति सेकेंड, यानी 18 हजार मील प्रति घंटा। यह बुलेट की रफ्तार से सात गुना ज्यादा है। अनुमान है कि वर्तमान में एक सेंटीमीटर से कम आकार वाले 12 करोड़ से ज्यादा कचरे के टुकड़े पृथ्वी के चक्कर काट रहे हैं। भारत ने ‘मिशन शक्ति’ के तहत लोअर अर्थ ऑर्बिट में जिस जीवित उपग्रह को निशाना बनाया है, उससे भी पांच से 10 सेंटीमीटर के आकार वाले टुकड़े फैलने की बात कही गई है, जिस पर नासा ने खास तौर से चिंता जताई। यह बात और है कि अंतरिक्ष में उपग्रहों की भीड़ बढ़ाने का सबसे बड़ा दोषी अमेरिका ही है। हर साल वहां कमर्शल कंपनियां, सैन्य ऑपरेशंस और लोग भी अंतरिक्ष में उपग्रह भेजते रहते हैं। कुछ समय बाद ये सैटलाइट्स निष्क्रिय हो जाते हैं। स्पेस ट्रैफिक बढ़ता जाता है तो टकराव की स्थिति भी बनती है।
हालांकि अंतरिक्ष में सहयोग व सामंजस्य बनाए रखने के लिए विभिन्न देशों के बीच अंतरिक्ष संधियां भी कम नहीं हुई हैं। उदाहरण के लिए 1967 की आउटर स्पेस ट्रीटी और रजिस्ट्रेशन कन्वेंशन, 1968 का रेस्क्यू एग्रीमेंट, 1972 का लायबिलिटी कनवेंशन और 1984 का मून कन्वेंशन आदि। इनकी अपनी उपयोगिता है, लेकिन ये समझौते बहुत पुराने हैं। जब ये समझौते हुए तब अंतरिक्ष में कचरा जैसी कोई समस्या नहीं थी। अब यह खतरनाक रूप ले चुकी है। अंतरिक्ष में मौजूद मलबे को इकट्ठा करने पर भी काम हो रहा है। सोचा यह जा रहा है कि नेट या हार्पुन लगाकर किसी तरह मलबे को डीऑर्बिट किया जाए और वापस धरती पर लाकर जला दिया जाए। लेकिन यह उपाय कितना कारगर होगा और इस पर कितना खर्च आएगा, इसका ठीक-ठीक अंदाजा अभी नहीं हुआ है। वैसे अंतरिक्ष को शांतिपूर्ण और सुरक्षित बनाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है और कोई भी देश इससे बच नहीं सकता, लेकिन चूंकि भारत की तरफ उंगली उठाने की कोशिश हुई है, इसलिए इस तथ्य को याद कर लेना गलत नहीं होगा कि भारत का इन-ऑर्बिट कचरा 80 के करीब है जबकि चीन का तीन हजार से अधिक और अमेरिका का चार हजार से भी ऊपर।